जिंदगी सबको दो आँखें ही नहीं देती,
उसके साथ बहुतेरे चश्मे भी दे जाती है।
वे अदृश्य हो सकते हैं, यह और बात है।
ये चश्मे हमारी पढ़ाई के हैं, हमारी प्रवृत्तियों के हैं।
हमारी आदतों के हैं, हमारे संस्कारों के हैं, हमारी सोच के हैं।
एक चश्मा है काव्य का, दूसरा चश्मा है दर्शन का.
इनका भी अपना समय है-
पहला चश्मा बहुधा यौवन आने पर चढ़ता है,
दूसरा चश्मा प्रौढपन आने पर.
सबके साथ यही क्रम हो, यह जरूरी नहीं,
सबको ये चश्मे लगें, यह भी जरूरी नहीं,
लेकिन कई बार लगता है,
जिनकी आंखों पर यह चश्मे न चढ़े,
उनका जीवन कितना बेरंग रहा।
इस दुनिया को जितने रंगों में देख सकते थे, देख ही न सके।
जब जीवन में कभी घुटन आई, तब इन चश्मों ने ही उस धुंध को दूर करने में कुछ सहयोग कर दिया।
ऐसा भी हो सकता है कि कोई इन चश्मों का ऐसा आदी हो जाए कि वह इनके बगैर कुछ देख ही न पाए।
कई बार ऐसा भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति एक ही चश्मा लगाए, जिसमें दूरी और नजदीकी चश्मे की तरह काव्य और दर्शन दोनों के शीशे लगे हुए हों तथा दिखे दोनों से ऐसे कि कुछ भी ठीक से समझ ही न पाए।
- कृष्ण कांत पाठक, आईएएस (राजस्थान)
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