लोगों के बर्तन मांजे, खेती की, ताने सुने, अब IPS हैं इल्मा अफरोज

सपने कभी हारने नहीं देते। हालात और मुकद्दर के बीच फासलों को तय करना हो, तो लोगों की सुने बिना, आगे बढऩा जरूरी होता है। 'मैं फ्रांस रही, इंग्लैंड, अमरीका और इंडोनेशिया कई देशों में रही। विकल्प थे, मैं वहां अच्छी नौकरी कर सकती थी, लेकिन मुझे अपनी जड़ों की ओर लौटना था। मेरे खेतों में मिट्टी की खुशबू, मेरे बाबा के साथ बीता बचपन, मेरे भाई और अम्मी का संघर्ष मुझे मेरी जड़ों से कभी दूर नहीं कर पाया। मैंने अपनी पढ़ाई के लिए बर्तन मांजे, साफ-सफाई के काम किए, स्कॉलरशिप हासिल की। रोजमर्रा के खर्चे चलाने के लिए डिबेट्स जीत कर मिलने वाले 500-1000 रुपए से काम चलाया, लेकिन अब अपने लोगों, अपने वतन के लिए कुछ करना चाहती हूं। यही तो जिंदगी है, कि वो तोडऩे की पूरी कोशिश करती है, लेकिन हम उससे लड़ते, जूझते, संघर्ष करते अपने मुकाम की ओर बढ़ते जाते हैं।' उत्तर प्रदेश के मुदराबाद के छोटे से गांव कुंदरकी से ताल्लुक रखने वाली Ilma Afroz अब IPS कहलाती हैं। गांव के लोगों, मुहल्ले वालों ने इल्मा, उनके छोटे भाई और अम्मी पर ताने कसने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन इल्मा पढ़ती गई।

सिविल सर्विसेज 2017 में इल्मा ने 217वीं रैंक हासिल की और IPS में चयन हुआ। संघर्षों भरी जिंदगी के बीच 26 साल की उम्र में आईपीएस बनना कैसा लगता है? इल्मा कहती हैं, 'मेरे बाबा को कैंसर था। उनके इलाज में इतना पैसा लगा कि घर खाली हो गया। जब बाबा नहीं रहे, तो वही हालत हो गई जब छत न हो घर पर तो तूफान घेर लेते हैं। संघर्षों का जीवन चालू हो चुका था। मैं, तो केवल 14 सान की थी, लेकिन हमारी अम्मी ने बहुत हिम्मत रखी। वह हमेशा कहती हैं, तूं अपनी काबिलियत से पहचानी जाना, कपड़ों और खाने-पीने से नहीं। लोग कुछ भी कहें, तूं वही कर जो तो तूं बेहतर समझे। मुझे याद है मैं ऑक्सफोर्ड में पढ़ रही थी। बहुत ज्यादा ठंड थी। मेरे पास सर्दी के ठीक से कपड़े भी नहीं थे। यहां से जो स्वेटर लेकर गई थी, वो वहां की सर्दी के लिहाज से काफी नहीं थी। इतने पैसे भी नहीं थे कि कोट खरीद सकूं तब कोट खरीदने के लिए भी जगह-जगह काम करना पड़ा। बर्तन धोए, सफाई का काम किया, लेकिन जो किया, जब किया जाजय काम ही किया।'

इल्मा अपनी सफलता का पूरा श्रेय अपने बाबा की परवरिश, अम्मी का त्याग और छोटे भाई की बड़ी जिम्मेदारियों को उठाने की हिम्मत को देती हैं। इल्मा कहती हैं, 'अम्मी ने अपने बारे में कभी नहीं सोचा। मेरे भाई ने भी बहुत संघर्ष किया। जब मैं विलायत जा रही थी, मुझे भाई ने दहेज के लिए जो भी अम्मी के पास था, उसे बेच कर 274 यूरो लाकर दिए और कहा कि गुडिय़ा तूं पढ़ ले बस। मेरी अम्मी और मेरे भाई ने मुझे सब कुछ बनाया। भाई कहा करता था कि ऐसा न हो कि दस साल बाद तुझे दहेज देना पड़े, कोई तुझ पर जुल्म करे और हम देखें। इससे बेहतर है तूं पढ़। मैं स्कॉलरशिप पर विदेश गई, लेकिन भाई जो मुझसे दो साल छोटा है, उसने मेरे लिए बहुत कुछ किया। मुझे ऐसा भाई मिला, यह ऊपर वाले का करम है। मेरी खुशी के लिए उसने अपनी खुशियां कुर्बान की। मेरी पढ़ाई के लिए, मुझे मजबूती देने के लिए उसने पार्ट टाइम काम किया और मुझे पढ़ाया। उसने खुद के लिए एक जींस तक नहीं खरीदी, लेकिन मेरे लिए किताबों के पैसे इकट्ठा किए। अब जब मैं आईपीएस बनी, तो पहली बार उसके लिए जींस खरीद कर लाई।'

इल्मा कहती हैं, 'मैंने दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से कॉलेज की पढ़ाई पूरी की। मेरे गांव, मुहल्ले के हर किसी ने अम्मी को ताने दिए। कहते थे, बेटी को इतना पढ़ाना अच्छा नहीं। ज्यादा पढ़ लेगी, तो शादी नहीं होगी। लेकिन हम सबने मिलकर घर के टूटे छप्पर, तंगी के हालातों के साथ संघर्ष किया। यहां से पढ़कर मैं स्कॉलरशिप पर पढऩे विदेश भी गई। लेकिन अपने देश की सेवा के लिए, अम्मी की सेवा के लिए मैं विदेश से लौटी और सिविल सर्विसेज की तैयारी की। लोगों ने अम्मी को बहुत ताने दिए, लेकिन अम्मी कभी नहीं टूटी। अभावों से लडऩे के लिए मैं और छोटा भाई दोनों तैयार रहे हमेशा। विदेश गई तो भाई केवल सोलह साल का था, लेकिन मेरा पासपोर्ट बनवाना, करेंसी बदलवाना, मुझे एयरपोर्ट छोडऩा हर काम भाई ने संभाला। मैं चाहती तो विदेश में आराम से मोटे पैकेज की नौकरी पकड़कर खुद का जीवन अच्छे से चला सकती थी, लेकिन मैं अपने लोगों के लिए कुछ करना चाहती थी, अपनी मिट्टी के लिए उसकी महक में बने रहते हुए कुछ करना चाहती थी, इसलिए विदेश से लौट कर सिविल सेवाओं की तैयारी की और अब 2018 बैच में चयनित होकर देश की सेवा के लिए तैयार हूं।'

- डॉ. पुष्पा कुमारी (लेखक राजस्थान सरकार के शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद पर कार्यरत हैं)

Share on Google Plus

Officers Times - RNI No. : RAJHIN/2012/50158 (Jaipur)

1 comments:

  1. इल्म के हक में रहने वाली इल्मा अफ़रोज़ को सैल्यूट है

    ReplyDelete